दुनिया की सबसे जिम्मेदार और उत्तरदायी आध्यात्मिकता में जी रही है बिश्नोई परम्परा - पद्मश्री डॉ कपिल तिवारी
जाम्भाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर के तत्वावधान में 'प्रकृति, जीवन और बिश्नोई परंपरा' विषय पर एक वेबिनार आयोजित किया गया। जाम्भाणी साहित्य अकादमी बीकानेर,जाम्भाणी साहित्य से संबंधित ग्रंथों के संरक्षण, प्रसार और प्रकाशन और इसकी पाठ्य आलोचना के प्रति समर्पित है।इस वेबिनार का जूम और फेसबुक पेज पर प्रसारित किया गया। इसमें अकादमी के सदस्यों और विषय में रुचि रखने वाले अन्य लोगों ने भाग लिया।
वेबिनार के मुख्य वक्ता पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित डॉ. कपिल तिवारी थे जो प्रमुख विचारक और भारतीय ज्ञान परंपरा के लेखक हैं। अपने मुख्य भाषण में उन्होंने भारतीय दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रकृति में झाँका और इसके विविध रंगों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद में एक शब्द आता है- ऋत, जिसका अर्थ है कि प्रकृति अपने नियम चलती है, उन्होंने ऋत के सिद्धांत और प्रकृति में काम कर रहे आधुनिक वैज्ञानिक कानूनों के साथ इसकी समानता को विस्तार से बताया।प्रकृति अपनी संपूर्णता में अपने विभिन्न घटकों के बीच सामंजस्य बनाए रखती है। जब भी इसमें कोई विघ्न पड़ता है तो पृथ्वी पर जीवन असहज महसूस करने लगता है। इन प्राकृतिक गड़बड़ियों का कारण मानव हैं।बिश्नोई पर्यावरण के प्रहरी हैं और वे अपने जीवन की कीमत पर भी इसके परिरक्षण और संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं। वे घातक मानवीय हस्तक्षेपों के हमले से पर्यावरण को बचाने के लिए पूरी ताकत से लड़ते हैं। डॉ. तिवारी ने प्रकृति संरक्षण के लिए भक्तिकाल के साहित्य में उल्लेखित निर्देशों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला। इस काल के सभी संत कवियों ने प्रकृति के प्रति उचित श्रद्धा दिखाई है और इसके संरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया है। गुरु जम्भेश्वर जी ने प्रकृति संरक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनके अनुयायियों ने भी ऐसा ही किया। दुनिया की सबसे जिम्मेदार और उत्तरदायी आध्यात्मिकता में जी रही है बिश्नोई परम्परा। बिश्नोई समाज ने पर्यावरण और जीव रक्षा को अपना आध्यात्मिक उत्तरदायित्व माना है,यह विश्व की एक बहुत बड़ी घटना है।लोग पर्यावरण संरक्षण की बातें तो बहुत करते हैं परन्तु बिश्नोई समाज ने इसे अपने आचरण में उतारकर दिखाया है,दुनिया को इनसे सीखने की जरूरत है।अब वह समय आ गया है जब नदियों और वनों आदि को हमें मानवीय अधिकार देने होंगे, मनुष्य को इनका बेतहाशा विनाश करने का अधिकार किसने दिया है। दक्षिण अमेरिका में एक नदी को मानवीय अधिकार देकर इसकी पहल की गई है। एक सच्चा धर्म होता है और एक संगठित धर्म होता है, आजकल संगठित धर्म का बोलबाला है। संगठित धर्म ने सच्चे धर्म में जीने वाले जनजाति और प्रकृति के सहचार्य में रहने वाले लोगों की भावना को कभी समझा ही नहीं, जबकि सच्चाई तो यही है कि वे ही वास्तविक धर्म में जी रहे हैं।वे प्रकृति से एकमेव है और प्रकृति अप्रकट परमात्मा का प्रकट रूप है,इस प्रकार वे परमात्मा के कितने नजदीक हैं। उन्होंने बताया कि अरण्य, ग्रामीण और शहरी तीन संस्कृतियां समांतर चल रही है, इसमें प्रकृति के साथ जीने वाले अरण्य संस्कृति के लोगों का जीवन विलक्षण है,वे भौतिक संसाधनों के अभावों के बावजूद भी मस्त है और जीवन का भरपूर आनंद उठाते हैं।
वेबिनार की अध्यक्षता प्रोफेसर (डॉ) करुणाशंकर उपाध्याय, पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई ने की ।उन्होंने सबद वाणी और बिश्नोई आस्था के उनतीस सिद्धांतों और उनके व्यावहारिकता पर एक भव्य भाषण दिया और अक्षरशः इसका पालन करने की आवश्यकता पर बल दिया।
उन्होंने श्रोताओं से, प्रकृति का दोहन केवल उनकी आवश्यकता के अनुसार ही करने का आह्वान किया। उन्होंने आगे कहा कि प्राकृतिक संसाधनों का तर्कसंगत उपयोग किया जाना चाहिए और प्रकृति की कमी को पूरा करने के लिए उपयुक्त तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए जाम्भाणी साहित्य के उद्धरण दिये।उन्होंने प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण में बिश्नोइयों के योगदान और उनके बलिदानों की प्रचुरता का हवाला देते हुए विस्तार से बताया।उन्होंने खेजड़ली की शहादत की घटना का खुले दिल से स्वागत किया जो विश्व इतिहास में अद्वितीय है।
धन्यवाद ज्ञापन अकादमी के वरिष्ठ सदस्य, सेवानिवृत्त आरएएस अधिकारी श्री बी आर डेलू ने किया। संचालक और संयोजक विनोद जम्भदास और तकनीकी प्रबंधक डॉ लालचंद बिश्नोई रहे।
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