आपातकाल 1975 भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला धब्बा

आपातकाल1975 भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला धब्बा

आपातकाल 1975 भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला धब्बा

आपातकाल 1975 भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला धब्बा


आज से ठीक 45 वर्ष पूर्व 25 जून 1975 को सत्ता के लालच में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा करते हुए समस्त लोकतांत्रिक संस्थाओं, न्यायपालिका एवं प्रेस का गला घोंटकर लोकतंत्र की हत्या की थी, जो भारतीय लोकतान्त्रिक इतिहास में एक काला धब्बा है। यह आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की आत्मा पर हमला था। आइए....आज आपको 45 वर्ष पूर्व रचे गये इस विभत्सकारी आपातकाल की भयावहता का स्मरण करवाता हूँ।


1975 का जून माह समाप्ति की ओर था, लोग मानसून का इंतज़ार कर रहे थे। जिस समय गर्मी से राहत मिलनी चाहिए थी, तब देश की राजनीति का पारा रातों-रात चढ़ गया। राजनीति की यह गर्मी ऐसी थी कि 19-20 महीने तक सम्पूर्ण विपक्ष, विशेषकर जनसंघ (आज की भाजपा) और आरएसएस से जुड़े लोगों ने व समाजवादी नेताओं ने और सैंकड़ों स्वतंत्र पत्रकारों ने जेल में राजनीति की इस तपिश को सीधे-सीधे महसूस किया।
आजादी के महज 28 साल बाद ही देश को तत्कालिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही फैसले से पूरे देश को अकारण आपातकाल के दंश से गुजरना पड़ा। 25-26 जून की रात्रि को आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ ही देश में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना कि भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है, परन्तु इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है।

आपातकाल लगाने की मुख्य वजह 1971 में हुए लोकसभा चुनाव थे, जिसमें श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंदी श्री राजनारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल पश्चात राजनारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव नहीं लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया और श्रीमती गांधी के चिर प्रतिद्वंदी राजनारायण सिंह को 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में विजयी घोषित कर दिया गया।

राजनारायण सिंह की दलील थी कि इन्दिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का जमकर दुरुपयोग किया और तय सीमा से अधिक पैसा खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया था। इसके बावजूद श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। तब कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा था कि इन्दिरा गांधी का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।
इसी दिन गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बौखला गईं। इन्दिरा गांधी ने अदालत के इस निर्णय को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 25 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।

राजनारायण के मामले में कोर्ट का निर्णय इमरजेंसी का तात्कालिक कारण था, लेकिन इसकी भूमिका पहले से ही तैयार होने लगी थी। 1975 की सर्दियों में ही राजनीतिक गर्मी का एहसास हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर जून में जो कुछ हुआ, वह इतिहास में भारतीय लोकतंत्र में एक काले धब्बे के रूप में दर्ज है।

1967 के बाद देश में गैर-कांग्रेसी/मिलीजुली सरकारों का दौर शुरू हो गया था। ऐसे में कांग्रेस और इसके नेतृत्व के ख़िलाफ़ भी आवाज़ें उठने लगी थीं। परन्तु 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवी-पर्स की समाप्ति, गरीबी हटाओ का नारा, 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में मिली जीत और बांग्लादेश के निर्माण से इंदिरा गांधी की बुलंदियों का सितारा सातवें आसमान पर था, फिर भी 1973 से चीजें बदलने लगीं। कांग्रेस और इसके नेतृत्व के ख़िलाफ़ आवाज़ें उठीं। इन आवाज़ों में गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन और बिहार का छात्र आंदोलन प्रमुख थे। गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में छात्रों के सामने राज्य सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा, फिर उसके बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था। बिहार में भी छात्रों का आंदोलन हुआ। अप्रैल 1974 में यहाँ गांधीवादी नेता श्री जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। इसके अतिरिक्त लेबर यूनियन नेता श्री जॉर्ज फर्नाडीस के नेतृत्व में देशभर में सफ़ल रेल हड़ताल कर दी गई।
इन घटनाक्रमों से किसी भी सरकार का सकते में आना स्वाभाविक था और उसने इससे निपटने के लिए उपलब्ध विकल्पों पर विचार करना शुरू कर दिया।

संवैधानिक और क़ानूनी प्रावधानों से निकलते हुए इमरजेंसी की रूप रेखा बनाने वाले पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को यह सलाह दे डाली थी कि कुछ अलग किया जाना बहुत जरूरी है। सिद्धार्थ शंकर रे बंगाल से आने वाले आरंभिक स्वतंत्रता सेनानियों में प्रमुख सी.आर.दास के पोते थे।

उस समय इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रहे कुलदीप नैयर ने अपनी किताब "इमरजेंसी रीटोल्ड" में इसका ज़िक्र किया है। वे लिखते हैं कि जेपी और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का निर्णय जनवरी में ही ले लिया गया था। मुझे प्रधानमंत्री सचिवालय के एक व्यक्ति से पता चला है कि कैसे 'टेक ओवर' करना है। इस व्यक्ति को ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन इतना पता था कि जेपी की गिरफ्तारी और आरएसएस को प्रतिबंधित किया जाएगा।
चूंकि मामला स्पष्ट नहीं हो रहा था तो कुलदीप नैयर ने इन तथ्यों को जनसंघ के पत्र MotherLand को भेज दिया। मदरलैंड में जितना संभव था, इस कहानी को हवा देते हुए छापा लेकिन इंडियन एक्सप्रेस ने संतुलन बनाते हुए जेपी और आरएसएस से जुड़े तथ्यों के बिना ख़बर छापी।
लेकिन 1975 की सर्दियों यानि जनवरी में यह बात आई कहाँ से? इसका थोड़ा सा जिक्र भी कुलदीप नैयर की किताब में है। वह यह कि 8 जनवरी को सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर आरएसएस को बैन करने के लिए कहा था।
आगे कुलदीप नैयर लिखते हैं कि इंदिरा गांधी का आरएसएस के प्रति विरोध/नफ़रत का रवैया जगजाहिर था। वे काफी हद तक अपने बेटे संजय गांधी के भरोसे रहती थीं। इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं कि जेपी और मोरारजी देसाई जैसे नेताओं को गिरफ़्तार करना पड़े, लेकिन एक समय बाद उनको भी महसूस होने लगा कि इन्हें स्वतंत्र छोड़ना अपने लिए समस्या खड़ी करना होगा।
कुलदीप नैयर के अलावा कोमी कपूर ने भी अपनी किताब "The Emergency: A Personal History" में इस तथ्य को ओर अधिक जोर देते हुए उठाया है।
उन्होंने लिखा; अपने आपको प्रगतिशील और उदार दिखाने वाले सिद्धार्थ रे, क़ानून मंत्री एच. आर. गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष डी. के. बरुआ (जिन्होंने नारा दिया था 'इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा) रजनी पटेल ने देश में आंतरिक आपातकाल और बड़ी संख्या में विरोधियों की गिरफ़्तारी करने का आईडिया इंदिरा गांधी को दिया था।
कोमी कपूर ने अपनी इस किताब में 8 जनवरी वाले हाथ से लिखे उस पत्र को भी छापा है, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है।
रे इस पत्र में 'डियर' इंदिरा से सभी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से गिरफ़्तार करने वाले व्यक्तियों की सूची तैयार करने और इस आईडिया को लागू करने के लिए अध्यादेश लाने की सलाह दे रहे हैं। इसे 24 घण्टे में तैयार होने की उम्मीद रखते हुए रे कहते हैं कि राष्ट्रपति इसे अपनी सहमति दे देंगे।
पत्र के अंत में रे ने लिखा कि आप कल होने वाली मीटिंग में शाम तक अध्यादेश तैयार करने पर जोर दीजिए। सबसे आख़िरी लाइन है, "अगर आप मुझसे बात करना चाहें तो मैं कल घर पर रहूंगा।"
इन तथ्यों से देखकर कहा जा सकता है कि 1975 की सर्दियों में ही राजनीतिक गर्मी का एहसास हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर जून में जो कुछ हुआ, वह भारतीय लोकतान्त्रिक इतिहास में एक काले धब्बे के रूप में दर्ज है।
25जून को आकाशवाणी ने रात के अपने एक समाचार बुलेटिन में यह प्रसारित किया कि अनियंत्रित आंतरिक स्थितियों के कारण भारत सरकार द्वारा पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा था, 'जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी।" इस दौरान जनता के सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था। सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था। दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर पूरे देश में न फैल सके इसके लिए दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई। रात को ही इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आर.के.धवन के कमरे में बैठ कर संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था।

आपातकाल के दौरान सत्ताधारी कांग्रेस ने आम आदमी की आवाज को निरंकुशता से कुचला। इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देता था। प्रावधान के अनुसार, "इंदिरा गांधी जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थी, लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की आवश्यकता नहीं थी, मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे, सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी।"
मीसा और डीआईआर के तहत देशभर में लाखों बेगुनाह लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। आपातकाल के खिलाफ आंदोलन के नायक श्री जयप्रकाश नारायण की किडनी कैद में रहने के दौरान खराब हो गई थी। आपातकाल के उस दौर में जेल व यातनाओं की दहला देने वाले संस्मरण भरे पड़े हैं। देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी को सलाखों के पीछे डाल दिया गया। एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं। बड़े नेताओं के साथ जेल में युवा नेताओं को बहुत कुछ सीखने-समझने का अवसर मिला।
एक ओर जहाँ नेताओं की नई पौध राजनीति सीख रही थी, वहीं दूसरी ओर देश को इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे। संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया, जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बगैर कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी, जिसने भी इनकार किया, उसे जेलों में डाल दिया गया।
एक तरफ देशभर में सरकार के खिलाफ बोलने वालों पर जुल्म किया जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडे "परिवार नियोजन, दहेज प्रथा का खात्मा, वयस्क शिक्षा, पेड़ लगाना व जाति प्रथा उन्मूलन" पर काम करना शुरू कर दिया था।
तत्कालीन नेताओं ने अपने संस्मरणों में उल्लेख किया है कि सौंदर्यकरण के नाम पर संजय गांधी ने एक ही दिन में दिल्ली के तुर्कमान गेट की झुग्गियों को साफ करवा डाला। उक्त पांच सूत्रीय कार्यक्रम में ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। 19 महीने के दौरान देशभर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। संस्मरणों में उल्लेख किया गया है कि पुलिस बल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़कर उनकी जबरदस्ती नसबंदी करा दी जाती थी।

आपातकाल के काफी समय बाद एक साक्षात्कार में इंदिरा गांधी ने कहा था कि उन्हें लगता था कि "भारत को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है।" लेकिन इस शॉक ट्रीटमेंट की योजना 25 जून की रैली से छह महीने पहले ही बन चुकी थी। 8 जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल की पूरी योजना भेजी थी। चिट्ठी के मुताबिक ये योजना तत्कालीन कानून मंत्री एच.आर.गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ और मुम्बई कांग्रेस के अध्यक्ष रजनी पटेल के साथ उनकी बैठक में बनी थी।

आपातकाल के जरिए इंदिरा गांधी जिस विरोध को शांत करना चाहती थीं, उसी ने 19 महीने में देश का बेड़ागर्क कर दिया। संजय गांधी और उनकी तिकड़ी से लेकर सुरक्षा बल और नौकरशाही सभी निरंकुश हो चुके थे। एक बार इंदिरा गांधी ने कहा था कि "आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे", लेकिन 19 महीने में उन्हें अपनी गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया और 18 जनवरी 1977 को उन्होंने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। 16 मार्च को हुए चुनाव में इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों ही पराजित हो गए। 21मार्च को आपातकाल समाप्त हो गया लेकिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक बड़ा काला धब्बा छोड़ गया।

आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतंत्र को बचाने के लिए तत्कालीन नेताओं के मजबूत नेतृत्व में अनगिनत लोगों ने यातनाएं सहकर निरकुंश शासन के खिलाफ डटकर मुकाबला किया, ऐसे सभी लोकतंत्र के रक्षकों को कोटिशः वंदन एवं अभिनंदन।
विडम्बना है कि आज भी देश को अकारण आपातकाल में धकेलने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री के वंशज अभी तक अपनी पार्टी में लोकतंत्र स्थापित नहीं कर पाए हैं और देश में लोकतंत्र बचाने की दुहाई दे रहे हैं।
भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में आपातकाल रूपी ये काला धब्बा हजारों वर्षों तक लोक-स्मृति में मौजूद रहेगा।

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डॉ. सुरेश बिश्नोई 
(MBBS, LLB)
एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट।

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