हमारी समृद्ध परम्परा

हमारी समृद्ध परम्परा

मित्रों ! ये किताबी चित्र नहीं है।यह राजस्थान की जमीन है।यह वीर प्रसूता धरती की पहचान है।जीव दया की बङी - बङी सैद्धान्तिक बातें यहाँ धरातल पर उतरती है।तपता रेगिस्तान भले ही मुश्किलों का प्रदेश रहा हो मगर यहाँ के बाशिंदों के मन में वन्यप्राणियों के प्रति प्रेम का अथाह समंदर है।बेजुबानों के लिए इन आँखों में जल आज भी जिंदा है।लिखने को तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु इन तस्वीरों पर लिखना चुनौतिपूर्ण है।यहाँ महसूस ही किया जा सकता है एक माँ की ममता को।यहाँ देखी जा सकती है समृद्ध परम्परा की जङें.....यहाँ देखा जा सकता है मूक प्राणियों से संवाद ।किसी ने ठीक ही कहा है कि प्रकृति का प्रत्येक अंश अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है मगर हम उस अभिव्यक्ति को समझ नहीं पाते हैं ।मनुष्य कई भाषाओं का ज्ञाता हो सकता है इसमें कोई बङी बात नहीं है मगर बुजुबानों की बात को समझना और समझाना कोई इस तरह जान ले क्या हम उसे अशिक्षित कह सकते हैं ? नहीं ।मैं मानता हूँ कि जहाँ दुनिया का तमाम किताबी ज्ञान खत्म होता है वहीं से यह परम्परा शुरु होती है।बहुत आसान है लिपिबद्ध सामग्री का पठन लेकिन कितना मुश्किल है इन आँखों को पढ़ना। 
विश्व में बहुत से पालतू पशुओं के प्रति यह आत्मीयता देखी जा सकती है 
बेजुबां से प्रेम

मगर चिंकारा जैसे डरपोक प्रवृत्ति के वन्यप्राणियों के साथ इस तरह घुलना- मिलना , बात करना और अपने स्तनों से  दुग्धपान करवाना यहाँ की माँ ही कर सकती है। 
मातृत्व का अनुपम रूप
हाँ - इसके पीछे एक दीर्घ परम्परा अवश्य रही है।इस भूमि पर जो संत अवतरित हुए उनका संदेश था यह ।पर्यावरण संरक्षण के लिए मरना पङे तो हिचकिचाना नहीं चाहिए ।कुछ ऐसा ही संदेश देते हुए  गुरु जाम्भोजी यह सिखाते हैं -" जीव दया पालणी, रूँख लीलौ नहीं घावै।" और यह चेतावनी भी देते हैं -"जीवां ऊपर जोर करीजै अंतकाल होयसी भारी।" 
आओ!इस समृद्ध परम्परा को महसूस करें ।
' जै जै राजस्थान '

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